सोमवार, 9 नवंबर 2015

महागठबंधन का बिहार

 बि हार विधानसभा चुनाव का परिणाम आ गया है। बिहार की जनता ने नीतीश कुमार के प्रति फिर से भरोसा जताया है। पूर्ण बहुमत के साथ जनता ने बिहार में अच्छे दिन लाने की जिम्मेदारी महागठबंधन को सौंपी है। जनादेश का स्वागत किया जाना चाहिए। बिहार में करारी हार झेलने को मजबूर भारतीय जनता पार्टी को ईमानदारी से विमर्श और विश्लेषण करना चाहिए। भाजपा की हार में कुछ कारण तो जाहिर हैं। जैसे- स्थानीय नेताओं-कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करना। विरोधियों की सांप्रदायिक धुव्रीकरण की चाल का तोड़ नहीं निकाल पाना। राष्ट्रीय नेताओं का उल-जलूल बयानबाजी करना। जनता से सीधे संवाद की कमी। दिल्ली चुनाव में मिली हार से सबक नहीं लेना भी भाजपा की हार का बहुत बड़ा कारण है। भाजपा कितना विचार करेगी और कितना मानेगी ये उसके भीतर की बात है। लेकिन, भाजपा को यह समझ लेना चाहिए कि तुरूप के इक्के का उपयोग कब करना चाहिए और कितना करना चाहिए। भाजपा ने नरेन्द्र मोदी का इस तरह उपयोग किया, जैसे वे ही बिहार के मुख्यमंत्री के दावेदार हों। स्थानीय नेताओं को आगे करके यदि बिहार के रण में भाजपा उतरती तो शायद अधिक अनुकूल परिणाम आते। शीर्ष नेतृत्व को हार की जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए। बहानेबाजी और अगर-मगर तर्कों से हार की जिम्मेदारी को कम नहीं किया जा सकता, क्योंकि वर्ष २०१० की तुलना में इस चुनाव में भाजपा को सीटों का भी नुकसान हुआ है।
        बहरहाल, विजयी महागठबंधन में शामिल आरजेडी, जदयू और कांग्रेस को भी आत्मचिंतन की जरूरत तो है, खासकर नीतीश कुमार को। उनके नेतृत्व में यह चुनाव लड़ा गया लेकिन उनकी अपनी पार्टी जदयू जंगलराज के प्रतीक लालू प्रयाद यादव की पार्टी आरजेडी से कम सीटें पा सकी है, ऐसा क्यों हुआ? बिहार की जनता ने नीतीश को जनादेश दिया है या फिर लालू प्रसाद यादव को? आरजेडी का सबसे बड़ी पार्टी बनकर आना भविष्य में कहीं महागठबंधन के लिए मुसीबत न बन जाए? लालू प्रसाद यादव की राजनीति की अपना स्टाइल है। यह स्टाइल नीतीश कुमार की रीति-नीति से मेल नहीं खाती है। ऐसे में समझा जा सकता है कि नीतीश कुमार के लिए सरकार चलाना और जनता की उम्मीदों पर खरा उतरना आसान नहीं होगा। नीतीश के लिए मुश्किलें इसलिए भी अधिक हैं क्योंकि, जिस तरह की उम्मीदें आम चुनाव में देश की जनता को नरेन्द्र मोदी से थी, ठीक उसी तरह की बहुत ज्यादा उम्मीदें बिहार की जनता को नीतीश कुमार से हैं। बिहार को विकास चाहिए, विवाद नहीं। अब देखना होगा कि नीतीश कुमार केन्द्र सरकार के साथ कितना तालमेल बैठा पाते हैं। या फिर वे भी दिल्ली सरकार की तरह केन्द्र के साथ झगड़ालू संबंध बनाकर रखेंगे। 
       इस चुनाव परिणाम का असर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता पर पड़े या न पड़े लेकिन नीतीश कुमार जरूर चमकेंगे। इन चुनाव परिणाम के बाद अब नीतीश कुमार को भाजपा विरोधी गठबंधन के भविष्य के नेता के तौर पर देखा जा रहा है। गठबंधन की सबसे कमजोर कड़ी कांग्रेस भी उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन कर गई। यह प्रदर्शन और जीत वेंटीलेटर पर पड़ी कांग्रेस के लिए ऑक्सीजन का काम कर सकती है। इन चार दलों को छोड़कर शेष सब पार्टियां चुनाव परिणाम के विश्लेषण में अप्रासंगिक हैं। 
        चुनाव पूर्व हमने कहा था कि 'मदर ऑफ इलेक्शन' के परिणाम के बाद देश की सभी राष्ट्रीय और प्रमुख क्षेत्रीय पार्टियों को मिलकर भारतीय राजनीति की दिशा तय करना चाहिए। बिहार चुनाव में विकास के मुद्दों का पीछे छूटते जाना हर किसी को चुभा था। भारतीय राजनीति में सांप्रदायिकता और जातिवाद के मुद्दों को जिस तरह से उठाया जा रहा है, वह क्षणिक लाभकारी हो सकता है लेकिन उसके दूरगामी परिणाम भयंकर हैं। 
        सबको तय करना होगा कि भविष्य में चुनावी लाभ के लिए देश के धार्मिक और सामाजिक ताने-बाने को दांव पर नहीं लगाया जाएगा। यह कठिन जरूर दिखता है लेकिन असंभव नहीं है। विरोधी पार्टी के नेताओं पर निशाना साधते वक्त शब्दों का चयन भी मर्यादित होना चाहिए। घृणा फैलाने वाले, अश्लीलता का पुट देने वाले, किसी के सम्मान को ठेस पहुंचाने वाले और गाली-गलौज की श्रेणी में आने वाले शब्दों का उपयोग न किया जाए। इससे जनता में राजनेताओं की छवि खराब हो रही है। राजनीति भी गंदी हो रही है। राजनेताओं और राजतीति के प्रति सम्मान बना रहना भारतीय लोकतंत्र के लिए जरूरी है। इसलिए हार और जीत के विश्लेषण के साथ इस बात का चिंतन किया जाना जरूरी है कि हम भारतीय राजनीति को किस दिशा में ले जा रहे हैं? आखिर सबके हित के लिए भारतीय राजनीति की दिशा क्या हो?

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