शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

हिन्दुओं के लिए दोहरी त्रासदी था विभाजन

 १४ अगस्त १९४७ आधुनिक भारत का सबसे दु:खद दिन था। कुछ सिर-फिरे नेताओं की सत्तालोलुपता के कारण दोनों ओर से हजारों-लाखों लोगों को मार डाला गया। विशेषकर वर्तमान पाकिस्तान में बसे हिन्दुओं की निर्ममता से हत्या की गई। जुलाई-अगस्त से ही उपद्रव शुरू हो गए थे, जो विभाजन के बाद तक जारी रहे। रात के समय हिन्दुओं के घर और दुकान अधिकारियों की मिलीभगत से उपद्रवी जला रहे थे और हिन्दुओं को मार-काट कर उन पर कब्जा कर रहे थे। बीभत्स नर-संहार के समाचार पाकिस्तान में बसने के इच्छुक लोगों को भी कंपा रहे थे। खून-पसीने की कमाई से बनाए पूर्वजों के और अपने पहले घर को कोई छोडऩा नहीं चाहता। लेकिन, धार्मिक देश के नाम पर नर से पिचाश बने लोगों के आगे उदार हिन्दुओं की हिम्मत जवाब देने लगी। आखिर ज्यादातर हिन्दुओं ने पाकिस्तान जो कि हिन्दुओं के लिए नापाक हो चुका था, से भाग आना ही उचित समझा। अहो! दुर्भाग्य, सुरक्षित भारत चले आना भी उनके नसीब में नहीं था। उस पार से रेलगाडिय़ों में जिन्दा इंसान की जगह लाशें यात्रा कर हिन्दुस्तान आती थीं। जिनकी किस्मत बहुत ही बुलंद थी, वे ही अमन की सरजमीं पर सही-सलामत आ सके। महज तीन माह में ही पाकिस्तान में बसे ९० फीसदी हिन्दुओं ने हमेशा के लिए अपने पैतृक भूमि को छोड़ दिया, या कहें छोडऩे पर मजबूर होना पड़ा। विभाजन की नींव हिन्दू-मुस्लिम एकता को छिन्न-भिन्न करके रखी गई थी। उस दौर के कई मुस्लिम  और हिन्दू संतों ने इस खूनी मंजर को रोकने के अथाह प्रयास किए थे लेकिन प्रयास रंग नहीं ला सके। विभाजन का दंश हिन्दुओं को ही नहीं चुभा वरन इससे उदार मुस्लिम भी आहत हुए। उन्होंने भी अपने लोग खोए और भूमि भी। लेकिन, तुलनात्मक रूप से इसका खामियाजा हिन्दुओं को अधिक उठाना पड़ा। विभाजन की अधिक मार हिन्दुओं पर ही पड़ी। लुटे-पिटे हिन्दू, खाली हाथ बमुश्किल जान बचाकर हिन्दुस्तान आ सके थे।
    कांग्रेस के प्रवक्ता शकील अहमद ने शायद इतिहास ठीक से नहीं पढ़ा या अहमद बेहद निर्मम है, जिसे विभाजन के घाव को कुरेदने में मजा आ रहा है। तभी मिस्टर अहमद ने बड़ी आसानी से कह दिया कि लालकृष्ण आडवाणी यहां सेवा नहीं मेवा खाने के लिए आए हैं। पाकिस्तान से यहां आना महज आडवाणी का मसला नहीं है। यह तो उन लाखों लोगों का दु:ख है, जिन्होंने अपनी जमीन खोयी और अपनी आंखों के सामने परिजनों की हत्या देखी। आडवाणी का भारत मेवा खाने के लिए आना, ऐसा कह कर कांग्रेसी नेता ने इन लाखों लोगों को तकलीफ पहुंचाई है। हकीकत तो यह है कि आडवाणी जैसे ही तमाम हिन्दुओं के लिए वहां रहना मुमकिन ही नहीं था। जो वहां रह गए, आज उनकी क्या हालत है, किसी से छिपी नहीं। विश्व के मीडिया में आई रिपोर्ट बयां करती हैं कि आज भी पाकिस्तान में हिन्दू सबसे निचले दर्जे का आदमी है। या कहें, पाकिस्तानी हुकूमत को उसकी फिक्र ही नहीं, उसकी नजर में हिन्दू पाकिस्तान का नागरिक है ही नहीं। वहां हिन्दू अपनी ही सुरक्षा और सेवा नहीं कर पा रहा है तो भला दूसरे हिन्दुओं की देखभाल कैसे करे? यह बात कांग्रेस के प्रवक्ता शकील अहमद को समझ नहीं आएगी क्योंकि वह भारत में रहते हैं। उन्हें जीने के लिए टेरर टैक्स नहीं देना पड़ता। उन्हें अपने परिजन की मौत पर धार्मिक रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार करने में बाधा नहीं होती। राजनीति में शीर्ष सत्ता तक पहुंचने में आसानी है। उन्हें जवान होती बेटियों के अपहरण और बलात्कार का डर नहीं। बलात धर्मांतरण का खौफ नहीं, क्योंकि शकील अहमद भारत में रहते हैं, धर्मनिरपेक्ष और हिन्दु बहुसंख्यक भारत में। पाकिस्तान में उक्त कामों में से एक भी हिन्दू आसानी के साथ नहीं कर पाता। उसका जीना दूभर है। वह बेचारा भारत भी नहीं आ पाता। आ भी जाता है तो यहां की सरकार उसकी चिंता नहीं करती है।
    विभाजन के वक्त भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी २० साल से भी कम उम्र के थे। लेकिन, सामाजिक जीवन में सक्रिय थे। सिंध में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ताओं में उनका नाम था।  संघ उस वक्त पाकिस्तान में बसे हिन्दुओं से यही आग्रह कर रहा था कि हिन्दू अपनी जमीन न छोड़ें, भारत नहीं जाएं, मिल-जुलकर यहीं पाकिस्तान में बसे रहें। इससे स्पष्ट है कि विभाजन की घोषणा के साथ ही लालकृष्ण आडवाणी ने पाकिस्तान छोडऩे का विचार नहीं बनाया होगा। लालकृष्ण आडवाणी अपनी आत्मकथा 'मेरा देश मेरा जीवन' में लिखते हैं कि सितंबर के आरंभ में एक दिन वे मोटरसाइकिल से कराची के मुख्य रेलवे स्टेशन के पास की सड़क पर जा रहे थे। उन्होंने वहां एक व्यक्ति का शव देखा, जिसकी छुरा घोंपकर हत्या कर दी गई थी। कुछ दूर ही चले थे कि उन्होंने एक और शव देखा, फिर एक तीसरा....। वे आगे लिखते हैं कि यह दृश्य उनके लिए अस्वाभाविक और परेशान करने वाला था। उन्होंने अपने जीवन में पहली बार सड़कों पर इस तरह लाशें देखी थीं। अपने आसपास इस तरह की घटनाएं देखने के बाद ही आडवाणी ने पाकिस्तान छोडऩे का निश्चय किया।
    शकील अहमद साहब को जरा सोचना चाहिए कि ऐसी स्थिति में भला कोई इंसान रुकना चाहेगा। हां, उनकी सुप्रीमो यहां मेवा खाने जरूर आई हैं। अब भला शकील अहमद आडवाणी को ढाल बनाकर अपनी ही पार्टी की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी को निशाना बना रहे हैं तो बात अलग है। लेकिन, जायज फिर भी नहीं। क्योंकि यह केवल एक आडवाणी से जुड़ा मसला नहीं है वरन विभाजन से आहत लाखों लोगों की बात है।

24 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमन ।।
    बढ़िया विश्लेषण है -
    शुभकामनायें-आदरणीय

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    1. मेवा खा के पाक का, वाणी-कृष्णा-लाल |
      ठोके कील शकील नित, वक्ता करे हलाल |

      वक्ता करे हलाल, कमाई की कमाल की |
      मनमोहन ले पाल, ढाल यह शत्रु-चाल की |

      लेकिन पाकिस्तान, हिन्दु का करे कलेवा |
      खावो कम्बल ओढ़, मियाँ सेवा का मेवा ||

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  2. शकील अहमद के पास दिमाग होता तो कांग्रेस में न होता !

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  3. Sahi kaha hai aapne. Kintu aaj kitne log vibhajan ki kahaani jante hai. Jitne toppers hai unhe to shayaad bilkul bhi pata nahi hoga itihaas ke baare me, ve to keval school ki kitabo ko hi itihaas samajhte hai.

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  4. तर्क संगत सुंदर आलेख ,विस्थापन के दंस से आहत हिन्दुओ ने बड़ी मेहनत से सम्मान पूर्वक जीवन जीने की कोशिश की और समाज में उचित स्थान बनाया है ,हर क्षेत्र में अपनी लगन और मेहनत से कीर्तिमान स्तापित किया है, उनका जीवन आचरण अनुकरणीय है क्योकि वे विस्थापन के बाद खली हाँथ हमारे साथ आये थे।बहुत -बहुत साधुवाद

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  5. शकील अहमद का गैरजिम्मेदारना बयान न केवल विभाजन की विभीषिका को हल्का करने वाला है बल्कि भारत क शरणागत-वत्सल परंपरा का भी अपमान करने वाला है। इस इंसान को न हमारी संस्कृति का अंदाज़ है न इतिहास का और न ही उस आग का जिससे सारा देश घिरा हुआ है ... और अगर यह मासूमियत निपट अज्ञान नहीं मक्कारी है तब तो भगवान मालिक है ...

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  6. सुप्त कौमे ऐसी त्रासदिया बार-बार झेलती है !

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  7. मैं खुद एक ऐसे ही परिवार से संबंध रखता हूँ। मेरे पिताजी उस समय सात साल के थे। मेरा जन्म 1970 में दिल्ली में हुआ था।
    लोकेन्द्र भाई, आप सोच रहे होंगे कि ये बायोडाटा क्यूँ बता रहा हूँ, वो इसलिये कि हमारी पहले की पीढ़ियों ने यह सब भुगता था। ये अलग बात है किअभी भी कुछ लोग उन लोगों को, जिनपर ये पोस्ट आपने लिखी है, पाकिस्तानी कह कर बुलाते हैं। और यह जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा लगता है। विभाजन के लिये मानसिक रूप से उधर के हिन्दु तैयार नहीं थे, जिसमें सबसे बड़ा कारण तथाकथित महात्मा द्वारा दिया गया आश्वासन था कि विभाजन उनकी लाश पर होगा।
    शकील अहमद साहब जैसों को कुछ भी कहने का हक है।
    गोदियाल जी ने जो कहा, वो सौ फ़ीसदी सही है। जब तक हम सामने वाले की मानसिकता नहीं समझेंगे, ये त्रासदियाँ बार बार होती रहेंगी।

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  8. मियाँ जी ऐसा इसलिए बोले, क्योंकि वह हिन्दुस्तान की जमीं पर चैन से मेवा खा रहे हैं, काश वह पाकिस्तान चले जाते तो मुहाजिर बनकर वहाँ जूते खाने की सेवा ले रहे होते...

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  9. आदरणीय भाईसाहब , आपने तो रुला ही दिया . वास्तव में उस समय क्या हालात होंगे , ये सोचकर रोंगटे खड़े हो गए. आज भी वहां की हालात बहुत बदतर है , ये भी हिन्द दूत समाचार पत्र में आपका लेख पढ़ कर ज्ञात हुआ. सर्कार के साथ-साथ सबको उनके बारे में सोचना चाहिए ..अच्छी जानकारी के लिए सादर धन्यवाद !

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  10. भारत विभाजन के पीछे छिपे राजनीतिक स्वार्थ, अनियंत्रित धार्मिक हिंसा की त्रासदी, राजनीतिक अदूरदर्शिता और खोखले आदर्शवाद ने भारत को जो स्थाई शल्य प्रदान किये हैं उनका निर्हरण शताब्दियों तक संभव नहीं| हिन्दू समुदाय में एकता और राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव ने भारत के भविष्य को संकट में डालदिया है|

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  11. सही कहा है लोकेंद्र जी ने. किन्तु आज कितने लोग विभाजन कि कहानी जानते है. जितने भी स्कूली कालेज कि शिक्षा में अव्वल आते है उन्हे तो शायद बिल्कुल भी पता नही होगा इतिहास के बारे में क्योंकि वे तो केवल स्कूल कि किताबों का इतिहास ही जानते है.

    सच इतिहास को नही बता कर हिंदी विद्वानों ने अपना कर्तव्य सही नही निभाया है. भला हो इस इंटरनेट और सोशाल नेटवर्किंग का जिसके कारण आज आम व्यक्ति भी इसे जानने लगा है. यह बात अलग है कि ऐसा लिखने और पढ़ने वाले को आम व्यक्ति 'अजीब प्राणी' समझते है.

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    1. सच कहा, विभाजन की त्रासदी भी हमारे इतिहास का अंग है, नागरिकों को इसके सभी पक्षों को जानने का अधिकार है। जानकारी की शुरुआत इतिहास की कक्षा से की जानी चाहिए

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