शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

कुंआरा करवाचौथ

 का र्तिक मास की कृष्ण पक्ष की पंचमी का दिन था। यानी करवाचौथ के एक दिन बाद। सुबह के करीब ११ बज रहे होंगे। सूरज आसमान के बीचों-बीच जगह बनाने को चल रहा था। धूप हो रही थी लेकिन जाड़े ने उसकी उष्णता कम कर दी थी। दोपहर की धूप भी गुनगुनी, अच्छी लग रही थी। छत पर सब बैठे थे। मैं अभी-अभी नहा-धोकर निपटा था। ठंड में देर से ही नहाने की हिम्मत हो पाती है। फिर ग्वालियर की ठंड के क्या कहने। हालांकि अभी ठंड अपने सबाब पर नहीं आई थी। भोजन की तैयारी थी। तभी दरवाजे से आवाज आई।
    कहां है भाई? इधर आ।
    अंदर ही आ जा। मैं खाना खाने बैठ गया हूं।
आवाज मैं पहचान गया था। सत्यवीर आया था बाहर। यहीं एक गली छोड़कर ही तो रहता है। मैन रोड पर उसका मकान है। मेरा सबसे खास दोस्त है। दिन-रात के २४ घंटे में से कम से कम १० घंटे हम साथ रहते हैं। वैसे तो वह मेरे घर कम ही आता है। मैं ही उसके घर पहुंच जाता हूं। थोड़ी देर पहले उसी के यहां से तो आया था।
    अरे यार, तू बाहर निकल आ।
    अब ऐसी भी क्या बात है। अंदर आकर ही बता देता।
    क्या बता देता? बैंड बजी पड़ी है। तू तो यहां आराम से रोटी खा रहा है कोई दो दिन से प्यासा है।
    क्यों, क्या हो गया? कौन प्यासा है? साफ-साफ बता।
    अरे यार, उसकी अम्मा की... पूर्वी ने करवाचौथ का व्रत धर लिया है। कल से पानी तक नहीं पिया है, पिया के चक्कर में। सत्यवीर ने झुंझलाते हुए कहा। मेरे कंधे पर हाथ रखा और फिर मुझे सड़क की ओर लेकर चल दिया।
    साली कुतिया की तरह घूम रही है। मेरा तो दिमाग खराब हो गया है। एक तो मां को पहले ही सब पता चल गया है कि मेरा उसके साथ लफड़ा चल रहा है। तुझे तो पता ही है चार दिन पहले ही मां उसके घर जाकर उसकी मां को ठांस आई- तुम्हारी लड़की हवा में उडऩे लगी है। संभालो। मेरे घर आई या मेरे लड़के से मिली तो टांगे तोड़ दूंगी। ये साली हरामखोर ने करवाचौथ का व्रत धर लिया। अब व्रत खुलवाने के लिए दिमाग खा रही है। संदेश पर संदेश भेज रही है। मैं क्या करूं? कुछ समझ में नहीं आ रहा।
    तू बहुत बड़ा वाला है यार। तेरे से मैंने पहले ही कही थी- मत पड़ उस लड़की के चक्कर में। तुझे उससे प्यार-व्यार तो था नहीं। मजे के चक्कर में फंस गईं न लेंडी। अब भुगतो, और क्या।
    अबे तू दोस्त है या दुश्मन। मैं मुसीबत में हूं तू मजे ले रहा है। उसे समझा न कि ये त्योहार कुंआरी लौंडियों के लिए नहीं होता। ब्याह के बाद रहे अपने पति के लिए रखे मजे से। मेरे गले क्यों पड़ रही है?
    उसने तो तुझे मन ही मन पति मान लिया न। अब क्या किया जा सकता है। मैंने हंसते हुए कहा।
    वह शांत रहा क्योंकि घर आ गया था। हम छत पर पहुंचे। दो मंजिल मकान है। कुल जमा ३० जीने चढऩे होते हैं छत पर पहुंचने के लिए। यहां ही हम सब मुद्दों पर चर्चा करते हैं। पूर्वी को पहली चिट्ठी भी सत्यवीर ने मुझसे यहीं बैठकर लिखवायी थी।
    अबे यार, मजाक का टाइम नहीं है। हमको तो समझ में नहीं आता कि ये कौन-सा चलन चल निकला है, कुंआरी लड़कियां करवाचौथ का व्रत रख लेती हैं।
    हम बताते हैं क्या चलन है। वैलेन्टाइन का नाम सुना है।
    अब हमको ये भी नहीं पता होगा क्या?
    मालूम है तुम्हें नहीं पता होगा तो क्या मुझ जैसे ब्रह्मचारी को पता होगा। दो-दो तीन-तीन गोपियों से उपहार जो वसूलते हो उस दिन। देने के नाम पर सबको चूतिया बना देते हो। हां तो सुनो भाई साधौ। देशी वैलेन्टाइन हो गया है करवाचौथ। जितनी भी लड़कियां प्रेम में आकंठ डूबी हैं। जिनका प्रेम सरेबाजार बाइक पर बैठते समय कुछ अपने प्रेमी पर टपकता है कुछ रास्ते पर, ऐसी सभी कथित कुंआरी लड़कियां करवाचौथ का व्रत रखने लगी हैं। और सुन बेटा लौंडे भी कम नहीं, वे भी करवाचौथ कर रहे हैं।
    पगला गए है भौसड़ी के सब। उसकी झुंझलाहट और बढ़ गई थी। छत से पूर्वी का घर साफ-साफ दिखता है। सत्यवीर और पूर्वी के नैना यहीं से चार होते रहे हैं। अभी भी पूर्वी इधर-उधर चहल-कदमी कर रही थी। वह इशारे से सत्यवीर को कहीं बुलाना चाह रही थी। यह देखकर सत्यवीर का दिमाग गर्म हो रहा था। वह रसिक जरूर था लेकिन ये सब चोचलेबाजी उसे कतई पसंद नहीं थी। पूर्वी को वैसे भी वह छोडऩे की फिराक में था। एक तो मां ने सारा मामला पकड़ लिया था। दूसरा सत्यवीर को भी समझ आ गया था कि यह चिपकने वाली लड़की है।
    पगलाए नहीं हैं बच्चू। प्रेम में हैं। प्रेम जो न कराए वो कम है। तू सुन, प्रेमी युगल करवाचौथ का व्रत खोलने के क्या-क्या उपाय करते हैं। तेरा मामला तो लेट हो गया। बेचारी पूरे दो दिन से बिना अन्न-पानी के है। कुछ रहम कर अपनी महबूबा पर। तो लड़के पाइप से चढ़कर अपनी कुंआरी पत्नी को चांद से चेहरे का दीदार कराने और उसे अपने हाथ से पानी पिलाने पहुंच जाते हैं। लड़कियां सबके सोने के बाद चुपके से छत पर आ जाती हैं। या फिर कहीं बाहर मिल लेते हैं।
    तू एक काम कर खाना खाकर आ। फिर अपन दो दिन के लिए गांव चलते हैं। कॉलेज में भी खास पढ़ाई नहीं चल रही है। मुझे समस्या से बाहर निकालने के लिए तेरा दिमाग भी नहीं चल रहा है।
    गांव जाने से समस्या का हल नहीं निकलेगा मेरे भाई।
    अब तू जा जल्दी खाना खाकर आ। तेरा दिमाग नहीं चलेगा। मेरी खाज है मुझे ही खुजानी पड़ेगी।
    खाना खाने के बाद मैंने घर पर बताया कि दो दिन के लिए गांव होकर आता हूं। बहुत दिन हो गए हैं, गांव गए हुए। एक जोड़ी कपड़े पॉलीबैग में डाले और चला आया फिर से सत्यवीर के घर। वो तैयार बैठा था। बस पकडऩे के लिए हम घर से बचते-बचाते निकले, कहीं पूर्वी न देख ले। बस स्टॉप पर खड़े हुए पांच मिनट ही हो पाईं थीं कि पूर्वी आ गई। वो मैडम तो घाघ की तरह शिकार पर नजरें जमाए बैठी थी। उसे देखकर सत्यवीर के माथे की लकीरें बढ़ गईं। कोई देख ले और घर जाकर कह दे तो मां के हाथ दोनों के बारह बजने तय थे। सत्यवीर और पूर्वी के बारह मेरे नहीं। मेरे तो तेरह बजते।
    भैया इन्हें समझाओ न। मैंने इनके लिए व्रत रखा है और ये हैं कि मुझे पानी तक नहीं पिला रहे हैं। मैं दुकान तक जाने की कहकर आई हूं जल्दी वापस जाना होगा। आप प्लीज इन्हें समझाइए। पूर्वी ने उदास चेहरे के साथ मुझसे गुहार लगा रही थी।
    वैसे तुम्हें ये व्रत रखने की सलाह किसने दी? ये व्रत कुंआरी लड़कियों के लिए होता ही नहींं हैं। जाओ खुद ही पानी पी लेना, कोई दिक्कत नहीं होगी। मैंने अपनी लंगोटिया यारी निभाने की कोशिश की। हालांकि मुझे पता थी कि लड़की प्रेम में पगलाई हुई है। आसानी से मानेगी नहीं। वह नहीं मानी और सत्यवीर के पास पहुंच गई। खूब विनय किया पूर्वी ने लेकिन सत्यवीर नहीं माना। तब एक बार फिर वो मेरे पास आई।
    बस आप मेरा व्रत खुलवा दीजिए। आपका एहसान रहेगा मुझ पर।
    यहां तो पानी ही नहीं है। कैसे खुलेगा तुम्हार व्रत?
    इतना सुनते ही उसने इधर-उधर देखा। टिक्की (पानी पूरी) वाले के ठेले को देखकर उसका चेहरा खिल गया। वो पट्ठी दौड़ते हुए वहां गई। टिक्की वाले से एक दोना (पत्ते की कटोरी) लिया और उसमें जलजीरा का पानी भरकर ले आई।
    अब बुला लो अपने दोस्त को। जरा अपने हाथ से पिला दे फिर भाग जाए, जहां जाना हो।
    ठीक है। लेकिन, तुम्हारे लिए एक सलाह है। ये लड़का तुम्हें प्यार नहीं करता। इसलिए इसका ख्याल अपने दिल से निकाल देना। भविष्य में इस तरह की नाटक-नौटंकी मत करना। हमारी बात बुरी लग रही होगी लेकिन यही सत्य है।
    सत्यवीर के हाथ से टिक्की का पानी पीकर वह अपने घर चली गई। सत्यवीर ने भी राहत की सांस थी। उसने कहा - अब क्या करेंगे गांव जाकर।
    अब गांव तो चलना ही पड़ेगा। हम मन बना चुके हैं। दो दिन गांव में रहकर आएंगे। चलो बस आ गई।
    दोनों बस में सवार हो गए। ईश्वर की कृपा से सीट भी मिल गई। सत्यवीर किसी सोच में डूब गया। हम मंद-मंद मुसकरा रहे थे। पूरे एपिसोड को सोच-सोच कर मैं मन ही मन व्यथित भी था तो हंस भी रहा था। व्यथित इसलिए था कि आज के युवा किस रास्ते पर हैं। जिन्हें न तो प्रेम का पता है न परंपराओं का।

20 टिप्‍पणियां:

  1. सटीक लिखा है ! बिना महत्त्व को समझे , लोग शौकिया भी रह लेते हैं व्रत।

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  2. कच्ची उम्र का प्यार और ना समझी ...किस और ले जाएगी ..आपकी ये कहानी पढ़ के समझ आता है ..जिक्स परिणाम है उसका रखा गया ये करवाचौथ का व्रत

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    1. प्यार को मजाक बनाने की तरफ ले जाया जा रहा है... वैसे प्यार लगभग 'मजा' तो बन ही गया है.. 'क' जुड़ना शेष रह गया है

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  3. यदि ये कहानी है तो काफी कुछ असली है एक बड़ा युवाओ का वर्ग है जो प्यार को टाइम पास समझता है और बेफकुफ़ लड़कियों की एक फौज है जो इसे सच मान कर सब समर्पण करने को तैयार है । सच है ये सब किन्तु किसी प्यार करने वाली लड़की ( मालूम है की बेफकुफी कर रही है ) के लिए ये सारे शब्द गाली के रूप में कहे जा रहे है उसे पढ़ कर अच्छा नहीं लग रहा है तनिक गुस्सा सा आ रहा है । कहानी है तो गुस्सा आ रहा है कोई सामने ये करता तो उसका क्या हाल कर देती :) ।

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    1. anshumala जी कमोबेश यही सच है...
      सच ये भी है कि कथित प्रेम या लड़कियों को लेकर जो सोच सत्यवीर की है वैसे सोच अब लड़कियों में भी देखि जा रही है... शायद इसलिए ही वे बेवकूफ बनती दिखती हैं...

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  4. एकदम सटीक चोट... पर कुछ शब्दों पर आपत्ति मन-मस्तिष्क में उछल-कूद कर रही है.....
    कम से कम ऐसे सार्वजानिक मंच पर इनके प्रयोग से बचना चाहिए!वैसे भी ये पोस्ट इन "विशेष शब्दों" के बिना भी बेहतरीन और प्रभावशाली अभिव्यक्ति है!

    कुँवर जी,

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    1. कुअंर जी, बहुत छाना ये तो चौकर रह गया है... वैसे मेरी भी कोशिश यही रहती है की विशेष शब्दों का उपयोग कम ही हो....

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  5. सार्वजनिक मंच में अनुचित शब्दों से बचना चाहिए,,बेहतरीन प्रभावी प्रस्तुति,,,

    RECENT POST : समय की पुकार है,

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    1. अनुचित शब्द तो नहीं हैं... हाँ कुछ शब्द शालीन नहीं है ऐसा कहा जा सकता है....
      आपकी राय का स्वागत है.

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  6. मेरा अपना विचार यह है कि लड़कियाँ(अधिकतर) स्मार्ट होती हैं, शातिर नहीं। देखादेखी और नादानी में ऐसे कदम जरूर उठ जाते हैं जिनके परिणाम सबके लिये दुखद होते हैं।

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  7. आदरणीय मयंक जी बहुत बहुत धन्यवाद

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  8. क्या लोकेन्द्र जी कैसी बात करते है आप,,,,, पहले से खुद को परिस्थितियों के अनुरूप ढालकर रख लेने में बुराई क्या है ? :) :)

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  9. भाई लोकेन्द्र , आपकी यह पोस्ट मुझे अपेक्षाकृत हल्की लगी जबकि आप एक विचारशील पत्रकार व लेखक हैं । मैं हमेशा आपके आलेखों की प्रशंसक रही हूँ । अभिव्यक्ति को प्रभावशाली बनाने के लिये बिल्कुल जरूरी नही कि हल्के व अशोभनीय शब्दों का प्रयोग किया जाए ।

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    1. दीदी, इस टिप्पणी के लिए धन्यवाद, ध्यान रखूँगा की शालीन शब्दों का ही उपयोग करूँ... चूंकि कहानी ग्वालियर और उस पर भी भटके हुए युवाओं की थी तो कुछेक शब्द ऐसे आ गये हालाँकि सावधानी बरतने की कोशिश थी लेकिन फिर भी दुर्घटना घट ही गयी...

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  10. बेशक़ कुछ शब्दों पर पाठकों को आपत्ति हो रही है, लेकिन कहानी के परिवेश, पात्र और काल के हिसाब से मुझे उतनी दिक्कत नहीं हुई।

    युग कोई भी हो प्रेमी, प्रेम में बहुत कुछ करने की हिम्मत करते ही आये हैं।

    कथावस्तु, आज की युवा पीढ़ी की मनोदशा, किस तरह, संस्कार, परम्पराओं, और अपनी निजता के बीच भ्रांतमति हो झूलती है, ये दर्शाने में सक्षम रही।
    आपका धन्यवाद

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    1. अदा जी कहानी की सराहना करने के लिए शुक्रिया। वैसे उन शब्दों के उपयोग में मैं भी हिचक रहा था क्योंकि वह मेरी शैली नहीं है।

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