गुरुवार, 14 मार्च 2024

सच का सामना करने की है दम तो देखिए- बस्तर : द नक्सल स्टोरी

कम्युनिस्टों की हिंसक एवं क्रूर विचारधारा एवं भारत विरोधी सोच को उजागर करती है सुदीप्तो सेन की फिल्म 

‘द केरल स्टोरी’ के बाद सुदीप्तो सेन ने फिल्म ‘बस्तर: द नक्सल स्टोरी’ के माध्यम से एक और आतंकवाद को, उसके वास्तविक रूप में, सबके सामने रखने का साहसिक प्रयास किया है। भारत में कम्युनिस्ट, नक्सल और माओवाद (संपूर्ण कम्युनिस्ट परिवार) के खून से सने हाथों एवं चेहरे को छिपाने का प्रयास किया जाता रहा है। लेफ्ट लिबरल का चोला ओढ़कर अकादमिक, साहित्यक, कला-सिनेमा एवं मीडिया क्षेत्र में बैठे अर्बन नक्सलियों ने कहानियां बनाकर हमेशा लाल आतंक का बचाव किया और उसकी क्रांतिकारी छवि प्रस्तुत की। जबकि सच क्या है, यही दिखाने का काम ‘बस्तर : द नक्सल स्टोरी’ ने किया है। फिल्म संवेदनाओं को जगाने के साथ ही आँखों को भिगो देती हैं। फिल्म जिस दृश्य के साथ शुरू होती है, वह दर्शकों को हिला देता है। जब मैं ‘बस्तर’ की विशेष स्क्रीनिंग देख रहा था, तब मैंने देखा कि अनेक महिलाएं एवं युवक भी पहले ही दृश्य को देखकर रोते हुए सिनेमा हॉल से बाहर निकल गए। जरा सोचिए, हम जिस दृश्य को पर्दे पर देख नहीं पा रहे हैं, उसे एक महिला और उसकी बेटी ने भोगा है। फिल्म में कुछ दृश्य विचलित कर सकते हैं। यदि उन दृश्यों को दिखाया नहीं जाता, तो दर्शक कम्युनिस्टों की हिंसक मानसिकता का अंदाजा नहीं लगा सकते थे। 76 जवानों को जलाकर मारने की घटना का चित्रांकन, कुल्हाड़ी से निर्दोष वनवासियों की हत्या करने के दृश्य, मासूम बच्चों को उठाकर आग में फेंक देने की घटना, यह सब देखने के लिए दम चाहिए। यह फिल्म अधिक से अधिक लोगों को देखनी एवं दिखायी जानी चाहिए। सुदीप्तो सेन को सैल्यूट है कि उन्होंने बेबाकी से लाल आतंक के सच को दिखाया है। हालांकि, कम्युनिस्ट हिंसा की और भी क्रूर कहानियां हैं, जिन्हें दिखाया जाना चाहिए था लेकिन फिल्म में समय की एक मर्यादा है। अपेक्षा है कि सुदीप्तो इस पर एक वेबसीरीज लेकर आएं।

‘बस्तर: द नक्सल स्टोरी’ जिस दृश्य से शुरू होती है, फिल्म वहीं से दर्शकों को बाँध लेती है। भारत का राष्ट्रध्वज तिरंगा फहराने के ‘अपराध’ में नक्सलियों ने एक महिला की आँखों के सामने ही उसके पति के 36 टुकड़े कर दिए और एक पोटली में उसके शव को बाँधकर उसे सौंप दिया। जब वह महिला अपने पति के शव (36 टुकड़े) सिर पर रखकर घने जंगल से अपने घर की ओर जा रही होगी, तब कैसे चल पा रही थी, कल्पना नहीं की जा सकती। उसके सिर पर वह बोझ, दुनिया के किसी भी बोझ से अधिक भारी था। इस केंद्रीय कहानी के इर्द-गिर्द अन्य कहानियां भी साथ-साथ चलती हैं, जो लाल आतंक के सभी शेड्स को दिखाती हैं। फिल्म समाज के सामने उस नेटवर्क को भी उजागर करती है, जो जंगल से लेकर शहरों तक और नक्सली कैम्प से लेकर एजुकेशन कैम्पस तक फैला हुआ है। मीडिया से लेकर कोर्ट रूम तक की बहसों में किस प्रकार नक्सलियों एवं उनके समर्थकों के पक्ष में माहौल बनाया जाता है, यह भी फिल्म में देखने को मिलता है। हम फिल्म को गौर से देखेंगे तो यह भी भली प्रकार समझ पाएंगे कि नक्सल विचारधारा केवल जंगल तक सीमित नहीं है, वह हमारे आस-पास भी पनप रही है। इस संदर्भ में उस घटनाक्रम को भी दिखाया गया है, जिसमें नक्सलियों ने सोते हुए सीआरपीएफ के 76 जवानों की नृशंस हत्या की और उसका जश्न दिल्ली के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय जेएनयू में मनाया गया। भारत विरोधी इस विचारधारा को समझने और उसे फैलने से रोकने में प्रत्येक देशभक्त नागरिक को अपनी भूमिका निभानी होगी। 

फिल्म में एक संवाद है- “बस्तर की सड़कें डामर से नहीं, जवानों के खून से बनी हैं”। बस्तर की 55 किलोमीटर लंबी एक सड़क को बनाने के लिए 41 जवानों का बलिदान हुआ है। नक्सली अपने प्रभाव के क्षेत्रों में न तो स्कूल बनने देते हैं और न ही अस्पताल। फिल्म यह भी बताती है कि वनवासी बंधुओं को हिंसा में धकेलकर कम्युनिस्ट धन उगाही का धंधा कर रहे हैं। भारत विरोधी ताकतों से करोड़ों का फंड ले रहे हैं और अपना घर बना रहे हैं। लाल गलियारे के खनिज संपदा की लूट भी कम्युनिस्टों का एजेंडा है। याद रहे कि दुनिया में जहाँ कहीं कम्युनिस्ट सत्ता में रहे वहाँ उन्होंने लाखों निर्दोष लोगों की हत्याएं की हैं। कम्युनिस्ट आतंक ने सोवियत संघ में दो करोड़ लोगों की हत्या की, चीन में साढ़े छह करोड़, वियतनाम में 10 लाख, उत्तर कोरिया में 20 लाख, कंबोडिया में 20 लाख, पूर्वी यूरोप में 10 लाख, लैटिन अमेरिका में डेढ़ लाख, अफ्रीका में 17 लाख, अफगानिस्तान में 15 लाख लोगों की हत्या की गई है। पिछले 70-75 वर्षों में साम्यवादी प्रयोगों से लगभग 10 करोड़ लोग मारे जा चुके हैं। बोको हराम और आईएसआईएस के बाद दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकी नक्सली हैं।

साम्यवाद के 100 अपराधों पर डॉ. शंकर शरण की यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए- 

वर्तमान समय में भारतीय सिनेमा ने एक नयी करवट ली है। सिनेमा अपनी महत्वपूर्ण और आवश्यक भूमिका का निर्वहन कर रहा है। यही कारण है कि ‘द कश्मीर फाइल’ से लेकर ‘बस्तर: द नक्सल स्टोरी’ जैसी फिल्में बनाने की हिम्मत निर्माता-निर्देशक कर पा रहे हैं। भारतीय सिनेमा अब उस सच को सामने लाने का साहस दिखा रहा है, जिसे वर्षों से छिपाया जाता रहा या फिर उसका महिमामंडन किया गया। ‘बस्तर’ में निर्देशक सुदीप्तो सेन ने बहुत शानदार काम किया है। यह फिल्म दर्शकों को अंत तक बांधे रखने में सफल होती है। फिल्म के माध्यम से जिस सच को निर्देशक समाज तक ले जाना चाहते हैं, उसमें भी वे सफल रहे हैं। अदा शर्मा ने अपनी भूमिका में एक बार फिर प्रभाव छोड़ा है। उन्होंने एक साहसी और जिम्मेदार पुलिस अधिकारी की भूमिका का निर्वहन किया है। अदा शर्मा के साथ ही इंदिरा तिवारी, शिल्पा शुक्ला, यशपाल शर्मा, राइमा सेन और अनंगशा विस्वास जैसे कलाकारों ने भी अपना प्रभाव छोड़ा है। ‘द केरल स्टोरी’ के प्रोड्यूसर विपुल अमृतलाल शाह ‘बस्तर’ के भी प्रोड्यूसर एवं क्रिएटिव डायरेक्टर हैं। भारत जिस अघोषित युद्ध का सामना कर रहा है, उसका संपूर्ण सच बताने के लिए 15 मार्च, 2024 को सिनेमाघरों में ‘बस्तर: द नक्सल स्टोरी’ आ रही है। सच देखना चाहते हैं तो हिम्मत बटोरकर यह फिल्म अवश्य देखें।

भारतीय सिनेमा को लेकर फिल्म निर्माता एवं निर्देशक सुदीप्तो सेन से विशेष बातचीत

सोमवार, 11 मार्च 2024

मूल्यानुगत मीडिया के आग्रही थे प्रो. कमल दीक्षित

प्रो. कमल दीक्षित की पुस्तक- मूल्यानुगत मीडिया : संभावना एवं चुनौतियां


बाल सुलभ मुस्कान उनके चेहरे पर सदैव खेलती रहती थी। मानो उनका ‘कमल मुख’ निश्छल हँसी का स्थायी घर हो। कई दिनों से माथे पर नाचनेवाला तनाव भी उनसे मिलने भर से न जाने कहाँ छिटक जाता था। उनका सान्निध्य जैसे किसी साधु की संगति। उनके लिए कहा जाता है कि वे पत्रकारिता की चलती-फिरती पाठशाला थे। उनकी पाठशाला में व्यावसायिकता से कहीं बढ़कर मूल्यों की पत्रकारिता के पाठ थे। ‘व्यावहारिकता’ के शोर में जब ‘सिद्धांतों’ को अनसुना करने का सहूलियत भरी राह पकड़ी जा रही हो, तब मूल्यों की बात कोई असाधारण व्यक्ति ही कर सकता है। मूल्य, सिद्धांत एवं व्यवहार के ये पाठ प्रो. दीक्षित के लिए केवल सैद्धांतिक नहीं थे अपितु उन्होंने इन पाठों को स्वयं जीकर सिद्ध किया था। इसलिए जब वे मूल्यानुगत मीडिया के लिए आग्रह करते थे, तो उसे अनसुना नहीं किया जाता था। इसलिए जब वे पत्रकारिता में मूल्यों की पुनर्स्थापना के प्रयासों की नींव रखते हैं, तो उस पर अंधकार में राह दिखानेवाले ‘दीप स्तम्भ’ के निर्माण की संभावना स्पष्ट दिखाई देती थी।

शुक्रवार, 8 मार्च 2024

धार्मिक-आध्यात्मिक सर्किट के रूप में विकसित होगा उज्जैन-इंदौर संभाग, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव का सराहनीय निर्णय

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने उज्जैन-इंदौर संभाग को धार्मिक-आध्यात्मिक सर्किट के रूप में विकसित करने का सराहनीय निर्णय लिया है। यह निर्णय मध्यप्रदेश के विकास को नयी ऊंचाईयों पर ले जाने के साथ ही उसे बड़ी पहचान देगा। यह सर्वविदित है कि उज्जैन-इंदौर संभाग सांस्कृतिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक रूप से समृद्ध क्षेत्र है। इस संभाग में दो ज्योतिर्लिंग प्रकाशमान हैं- महाकाल एवं ओंकारेश्वर। जिनके दर्शन के लिए देशभर से श्रद्धालु पहुँचते हैं। महाकाल लोक के निर्माण के बाद से तो उज्जैन आनेवाले श्रद्धालुओं की संख्या में कई गुना बढ़ोतरी हो गई है। इसी संभाग के मंदसौर में पशुपतिनाथ मंदिर, नलखेड़ा में बगुलामुखी माई का मंदिर, खंडवा में दादा धूनीवाले, इंदौर में खजराना गणेश मंदिर सहित अनेक और स्थान ऐसे हैं, जो धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व के स्थान है।

बुधवार, 7 फ़रवरी 2024

आत्मविश्वास से भरे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बोले- अबकी बार 400 पार

अपने तीसरे कार्यकाल को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आत्मविश्वास से भरे हुए हैं। प्रधानमंत्री को देश की जनता पर विश्वास है कि इस बार पहले की अपेक्षा जनता की ओर से उन्हें और अधिक बड़ा जनादेश मिलेगा। लोकसभा में प्रधानमंत्री मोदी के भाषण की प्रत्येक पंक्ति इस आत्मविश्वास को व्यक्त करती है। दरअसल, प्रधानमंत्री मोदी के आत्मविश्वास के पीछे वर्तमान समय में बना देश का वातावरण है। अयोध्या में श्रीरामलला का मंदिर निर्माण ने जिस प्रकार की ऊर्जा का संचार समूचे देश में किया है, वह अचंभित करनेवाला है। देश में चल रही रामलहर को देखकर कोई भी बता सकता है कि भारत का समाज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी की सरकार के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए लोकसभा चुनाव का बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा है।

गुरुवार, 25 जनवरी 2024

धार्मिक पर्यटन का केंद्र है भारत

अयोध्या धाम में श्रीरामलला के दर्शन

धर्म और अध्यात्म भारत की आत्मा है। यह धर्म ही है, जो भारत को उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक एकात्मता के सूत्र में बांधता है। भारत की सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन करते हैं तो हमें साफ दिखायी देता है कि धार्मिक पर्यटन हमारी परंपरा में रचा-बसा है। तीर्थाटन के लिए हमारे पुरखों ने पैदल-पैदल ही इस देश को नापा है। भारत की सभ्यता एवं संस्कृति विश्व समुदाय को भी आकर्षित करती है। हम अनेक धार्मिक स्थलों पर भारतीयता के रंग में रंगे विदेशी सैलानियों को देखते ही हैं। दरअसल, भारत को दुनिया में सबसे ज्यादा धार्मिक स्थलों का देश कहा जाता है। एक अनुमान के अनुसार, देशभर में पाँच हजार से अधिक सुप्रसिद्ध धार्मिक स्थल हैं। हालांकि, हमारे लिए तो प्रत्येक धार्मिक स्थल श्रद्धा का केंद्र है। भारत के शहर-शहर में कई ऐसे स्थान हैं, जहाँ देशभर से लोग पहुँचते हैं। मथुरा, वृंदावन, अयोध्या, काशी, उज्जैन, द्वारिका, त्रिवेंद्रम, कन्याकुमारी, अमृतसर, जम्मू-कश्मीर, पुरी, केदारनाथ, बद्रीनाथ इत्यादि ऐसे स्थान हैं, जहाँ न केवल भारतीय नागरिक बड़ी संख्या में पहुँचते हैं अपितु विदेशी और भारतीय मूल के नागरिक श्रद्धा के साथ आते हैं। पिछले आठ-दस वर्षों में भारत के धार्मिक पर्यटन में उत्साहजनक वृद्धि हुई है। विश्व के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने न केवल धार्मिक स्थलों को पुनर्विकसित कराया है, अपितु आगे बढ़कर धार्मिक पर्यटन का प्रचार-प्रसार भी किया है। जिसके परिणाम हमें धार्मिक पर्यटन में हो रही वृद्धि के रूप में दिखायी देते हैं। विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, देश के कुल पर्यटन में 60 प्रतिशत से अधिक हिस्सेदारी धार्मिक पर्यटन की है। आज देश के पर्यटन उद्योग में 19 प्रतिशत की वृद्धि दर अर्जित की जा रही है जबकि वैश्विक स्तर पर पर्यटन उद्योग केवल 5 प्रतिशत की वृद्धि दर दर्ज कर रहा है।

बुधवार, 24 जनवरी 2024

श्रीरामलला का चित्र ही बन गया संपादकीय

 “रघुवर छबि के समान रघुवर छबि बनियां”

22 जनवरी, 2024 को दैनिक समाचारपत्र स्वदेश, भोपाल समूह ने अपने संपादकीय में शब्दों के स्थान श्रीरामलला का चित्र प्रकाशित किया है

‘स्वदेश’ ने श्रीराम मंदिर में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के प्रसंग पर अपनी संपादकीय में प्रयोग करके इतिहास रच दिया। ‘स्वदेश’ ने 23 जनवरी, 2024 के संस्करण में संपादकीय के स्थान पर ‘रामलला’ का चित्र प्रकाशित किया है। यह अनूठा प्रयोग है। भारतीय पत्रकारिता में इससे पहले ऐसा प्रयोग कभी नहीं हुआ। यह पहली बार है, जब संपादकीय में शब्दों का स्थान एक चित्र ने ले लिया। वैसे भी कहा जाता है कि एक चित्र हजार शब्दों के बराबर होता है। परंतु, स्वदेश ने संपादकीय पर जो चित्र प्रकाशित किया, उसकी महिमा हजार शब्दों से कहीं अधिक है। यह कोई साधारण चित्र नहीं है। इस चित्र में तो समूची सृष्टि समाई हुई है। यह तो संसार का सार है।

मंगलवार, 23 जनवरी 2024

राम दीपावली

कैलेंडर में 22 जनवरी पर अंगुली रखते हुए आज सुबह–सुबह बिटिया ने पूछा– “22 तारीख के नीचे कुछ लिखा क्यों नहीं है?”

उसके प्रश्न के मूल को समझे बिना मैंने उत्तर दिया– “लिखा तो है– द्वादशी”। चूंकि भारतीय कालगणना को लेकर बात चल रही थी, इसलिए यह उत्तर मैंने दिया।

अपने प्रश्न का उत्तर न पाकर, उसने फिर से आश्चर्य के भाव के साथ कहा– “हमने कल जो त्योहार मनाया, दीप जलाए, रोशनी की। यहां उसके बारे में कहां लिखा है?”

मैंने हर्षित मन से उसे बताया– “अब जो कैलेंडर छपकर आयेंगे, उन पर लिखा होगा ‘राम दीपावली’। परंतु उसे भी हमें 22 जनवरी को नहीं, पौष मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी को ही इसी उत्साह से मानना है”।

“मतलब, अब हम दो बार दीवाली मनाएंगे। फटाखे चलाएंगे और मिठाई भी खायेंगे। जय हो रामलला की”। उसका उत्साह देखते ही बन रहा था। अभी उसे पता नहीं कि अयोध्या धाम में भगवान श्रीराम का मंदिर बनने का क्या महत्व है? कितना बड़ा संघर्ष इस राम दीपावली के लिए रहा है? मैं उसे पूरी राम कहानी बताऊंगा। भारत के प्राण, उत्साह और विश्वास से परिचित कराऊंगा।

उसे यह जानना ही चाहिए कि ‘राम दीपावली’ मनाने का यह सौभाग्य हमें यूं ही प्राप्त नहीं हो गया है। इसके पीछे 500 वर्ष का संघर्ष, कठिन तपस्या और हजारों रामभक्तों का बलिदान है...

श्री अयोध्या धाम में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा का आनंद प्रकट करने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आह्वान पर राम ज्योति जलाकर मनाई राम दीपावली